"श्रद्धांजलि"

Akshay Pathak
भारतीय इतिहास
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भारत देश शरुआत से ही साँस्कृतिक मिलन सार देश रहा है। देश में नैतिकता, व्यवहारिकता कूट कूट के भरी है लेकिन "26/11, उरी और पुलवामा अटैक" जैसे विषय दिल दहला देने के लिए काफी है। आतंकवाद ने जैसे देश की नसों को जकड़ रखा है। 'आंतकवाद केवल एक व्यक्तित्व की पहचान है या सामूहिक जड़बुद्धि वाले लोगो की परेशानी यह समझना मुश्किल है।'
भारत ने ऐसे वीर जन्मे है जिसके कारण भारत अपना गौरव संभालता आया है। "माँ अपने शिशु की रक्षा करती है वैसे ही जवानों ने भी भारत माता की रक्षा की है।" अपनी माँ के लिये ढ़ेरो बलिदान दिए हैं, अब तक ये बेजोड़ बंधन अपनी अपनी ज़िम्मेदारी निभाता आया है और आगे भी निभाएगा।

मध्यप्रदेश के पहाड़ी इलाके से घिरा एक गाँव बुधनी। जिस राज्य की ख़ूबसूरती और पर्यावरण की तारीफों के पुल बांधे जा सके। बुधनी एक ऐसा गाँव जो जंगलो से सिमटा हुआ है। जिसमें पचास साठ घरों से ज़्यादा घर न होंगे। 'सूबेदार सूरज सिंह' बेहद सख़्त और ज़िम्मेदार फौजी देश की सेवा और देश के लिए बलिदान देने वाले यानी "कर्तव्यनिष्ठ व्यक्ति" इसी गाँव के हैं। पिता का स्वर्गवास हो गया था और माँ बूढ़ी थी जिनका ख़्याल उनकी पत्नी रखा करती है। उनकी दो विवाहित बेटियाँ कुसुम और अंजू के बाद उनका सबसे छोटा और लायक बेटा चंद्र प्रताप। बेटियों की शादी के बाद वे अपने ससुराल चली गई थीं और चंद्र प्रताप ने लगभग अपनी पढ़ाई पूरी कर ली थी।

सूबेदार साहब का सपना है अपने बेटे को आर्मी में भर्ती कराकर एक अच्छा देश भक्त और आर्मी अफसर बनाना। फिर ही वो परलोक के दर्शन करना चाहते हैं। चंद्र प्रताप की पढ़ाई पूरी हो चुकी थी। सूबेदार साहब कुछ दिनों के लिए घर आय हुए थे। घर के भीतर घुसते हुए सूबेदार साहब की नज़र उस पर पड़ी तो उसको पास बैठा लिया।

सूबेदार - "बेटा पढ़ाई पूरी हो गई है तो भारत माता की
सेवा के लिए कुछ सोचा है या नहीं।
सूबेदार खुले स्वभाव के व्यक्ति हैं। चंद्र अभी वयस्क हुआ था उसका मन अभी किसी जगह स्थिर होने का नहीं था परन्तु वह अपने पिता का बहुत आदर करता था।

चंद्र - "पापा अभी कुछ समय रुककर ट्रेनिंग लूँगा
फिर भारत माँ की सेवा करूँगा।"
चंद्र ने अचकचाते हुए कहा।
यह सुन उनकी पलकें झुक गईं शायद उदासी ने उन पर हमला कर दिया था। वह बिल्कुल भी अपने पिता के विचारों का गला नहीं दबाना चाहता था। सूबेदार इतनी बात करने के बाद अपने काम में लग गए और श्रीमती जी को आवाज़ लगाई। श्रीमती कुछ अच्छे पकवान बना रही थीं। "सूबेदार कोई भी जंग से लौटते थे तो घर मे एक ख़ुशनुमा माहौल होता था।" श्रीमती के सामने आते ही कहने लगे।

सूबेदार - "समझाइए अपने लाडले को समय माँग रहा
है। इसे फौज में जाने के लिये समय चाहिए।
भई हम जब जवान हुए थे तो फौजी बनने
का ऐसा भूत सवार था कि बता नहीं सकते।"

श्रीमती - "आप भी आय नहीं की समझाने बुझाने में
लग जाते हैं, उसे थोड़ा और बड़ा हो तो
जाने दीजिए। आप तो चले गए और अब
मेरे बेटे को मुझसे दूर करने की तैयारी कर
रहे हैं।"
टपकते हुए आँसुओ को पल्लू से पोछते हुए श्रीमाती बोली।
ये देख सूबेदार साहब की हँसी फुट पड़ी और हँसते हुए बोले।

सूबेदार - "रोती काहे हो मैं कौनसा पराय देश में हूँ
आख़िर हुँ तो अपने देश में ही न, ये मानलो
की अपने घर की चौकीदारी कर रहा हूँ बस
और रही बात चंद्र की तो... इसे अपने
कर्तव्यों से पीछे नहीं हटने देना चाहता।"
यह बोल सूबेदार कुछ गंभीर हो गए और सामने मिट्टी की दीवार पर टंगे मैडलो को देखने लगे, जो उन्होंने अपनी वीरता से प्राप्त किये थे। वह अपनी सोच में डूब से गए उनकी आँखों को देख ऐसा लग रहा था जैसे कुछ आस लगाए बैठे हैं। श्रीमाती और चंद्र शाँत मुद्रा में खड़े उन्हें देख रहे थे।

श्रीमती - "आप थके हारे आय हैं और अभी तक कुछ
खाया भी नहीं है। आइए पहले कुछ खा
लीजिये मैंने आपके मन पसन्द गुड़ के
गुलगुले बनाए है।"
श्रीमती ने कमरे में फैला मौन को भंग करते हुए कहा। उसके बाद सूबेदार साहब ने बड़े चाव से घर का स्वादिष्ट खाना खाया और फिर सोने चले गए।

कुछ दिनों बाद सूबेदार साहब अब अपने ठिकाने पर यानी किसी नई जंग पर लौट पड़े थे। पिताजी के कहने पर चंद्र ने आर्मी ट्रेनिंग शुरू तो कर दी थी लेकिन उसका मन उसका न हो सका। पूरी तरह मन न लगने पर उसका मन फीका ही रहता था। चंद्र को एक वर्ष बीत चुका था ट्रेनिंग करते हुए, वह कई चेष्टाओ में असफल रहा। अभी कुछ समय के लिए चंद्र ने ट्रैनिंग छोड़ रखी थी। वह अलसाया हुआ सा हो गया था।

'सूबेदार जाने से पहले एक अच्छा काम कर गए या यूँ कहें परिस्थिति समझ गए थे'। वे पास के गाँव से चंद्र के लिए रिश्ता तय कर गए थे। चंद्र का रूखापन देख कर उसकी माँ ने उसकी शादी करने का निर्णय ले लिया। इस लायक उम्र भी हो चुकी थी और शायद उसका मन स्थिर हो जायेगा। ज़िम्मेदारी आने से अपने भविष्य के लिए कुछ तो पहल करेगा। उसकी माँ के कहने पर सूबेदार साहब ने भी हामी भर दी।
जंगलो में तैनात होने के कारण वह ज़्यादा घर सम्भाल नहीं पाते थे। कुछ समय बाद चंद्र का विवाह तय हुआ और तैयारियाँ होने लगी। लड़की पढ़ी लिखी और समझदार भी थी। शादी में अंजू और कुसुम भी आयी हुई थी। छुट्टी न मिलने से सूबेदार साहब शादी में नहीं आ सके। उस समय वे "उरी बेस कैम्प" की रखवाली में तैनात थे। "17 सितंबर को चन्द्र का विवाह सम्पन्न हो गया।"

उसके दूसरे दिन 18 सितम्बर को नई बहू घर आगई थी। मेहमानों का जमघट लगा हुआ था। गाना बजाना चल रहा था, विवाह के बाद कि रस्में पूरी की जा रहीं थीं। घर ख़ुशी से चहक रहा था तभी उन्हें 'उरी हमले का समाचार मिला' समाचार मिलते ही पूरा घर सन्न रह गया। घड़ी की आवाज़ को छोड़ कर घर मे सन्नाटा पसर गया ऐसा लग रहा था जैसे किलकारी करता हुआ बच्चा अचानक चुप हो गया हो।
शाँत पड़े घर में धीरे धीरे रुदन फैलने लगा।

अब किसको पता था सूबेदार साहब कभी घर नहीं लौटेंगे। तिरंगे में लिपटे हुए सूबेदार सूरज सिंह अपनी पूरी आकांक्षाओ के साथ 'शहीद' हो गए। जवानों की गोलियां चल रहीं थीं, दूसरी तरफ श्रीमती और उनकी बेटियाँ विलाप कर रहीं थीं लेकिन चंद्र अपने पिता को निस्तब्ध देखे जा रहा था ऐसा लग रहा था उनसे कुछ प्रण कर रहा हो। 'श्रद्धांजलि' के बाद सूबेदार साहब का दाह संस्कार हुआ।

काफी दिन बीत गए थे। कुछ समय बाद चंद्र में अपने पिता का पद संभाल लिया था । वो नज़ारा झूठ नहीं था वास्तव में चंद्र ने अपने पिता से संकल्प किया था कि 'अब वह ये भार और सेवा का दायित्व संभालेगा', उनके सपने को पूरा करेगा।
सूबेदार साहब के शहीद हो जाने और चंद्र के इस फैसले से सब दुखी ज़रूर थे लेकीन कहीं न कहीं ख़ुश भी थे क्योंकि चंद्र अब अपने पिता जो एक सच्चे देशभक्त वीर फौजी थे उनके सपने को साकार कर रहा है।

चंद्र अपनी पोस्टिंग के अनुसार भारत फौज के साथ अपना दायित्व सम्भाल रहा था। इसी बीच उसने कई आतंकवादियों को मार गिराया था लेकिन कहीं न कहीं वह उदास या शायद दुखी भी था। वह अपनी पत्नी को शादी के पाँच दिन बाद ही छोड़ के चला आया था। साल भर में जब भी जाता तो उससे मिलता ज्योति बहुत समझदार है, ये वो अच्छी तरह जानता था। घर संभालने का पूरा भार उसने अपने सिर ले लिया था। माँ का ख़्याल रखना और दादी की सेवा करना। वो भी एक अच्छी देश भक्त है चंद्र ये बात अच्छे से जानता था, उसे प्रोत्साहित भी करती थी लेकिन आख़िरकार है तो वो एक पत्नी ही। साल के अंत में जब चन्द्र निकल रहा था तब वह बेहद उदास थी।

ज्योति - " फिर कब आओगे, तुम्हारे बिना घर सूना
लगता है। अब तो बस घर के काम, माँ जी
की सेवा और तुम्हारी राह देखती रहती हूँ।
जब भी समाचार देखती हूँ तो ख़ून खौल
उठता है। क्या ये आंतकवाद कभी ख़त्म
नहीं होगा ?"
ज्योति की आँखों में एक अजब सा आक्रोश था। वह शायद प्रेम के साथ अपना जज़्बा भी ज़ाहिर कर रही थी। चंद्र ने उसका यह आक्रोश पहली बार देखा और ख़ुश भी हुआ।

चंद्र - " हर आदमी अपनी इंसानियत को ज़िंदा रखे
तो आंतकवाद आज ही ख़त्म हो जाएगा
लेकिन हमारा कर्तव्य इस देश की रक्षा करना
है और वह हम करेंगे। तुम क्यों चिंतित होती
हो, निराश न हो ज्योति, जल्द ही लौटूंगा माँ
का ख़्याल रखना।"
इतना कह कर चंद्र अपना बैग उठाकर चल दिया। ज्योति घर के अंदर से दौड़ती हुई आई और 'आंगन में खड़े आम के पेड़ से टिक गई जैसे उससे और भी बहुत कुछ बोलना चाहती हो।' उसके गाल पर गर्व के मोती बरस पड़े थे, लेकिन जब तक चंद्र जाते जाते रास्ते में ही कहीं ग़ायब हो चुका था।

चंद्र जाते हुए यह बता गया था कि उसकी पोस्टिंग जम्बू कश्मीर के "पुलवामा ज़िले" में हुई है। वँहा ज़्यादा बर्फ़ बारी होने के कारण घर वालो से संपर्क में नहीं रह पाएगा। हाँ एक आद बार फ़ोन लग जाय तो भली क़िस्मत।
सी.आर.पी.एफ के जवानों की टोली ट्रकों में अपनी टुकड़ी के साथ जा रही थी। उन जवानो में चंद्र प्रताप भी था। इस बार उसके सीमा पर लौटने के बाद प्रकृति कुछ और ही संदेश दे रही थी। सर्द हवा चल रही थी, घटते तापमान में और भयानक हालात बन रहे थे। चारो तरफ घना 'कोहरा' छाया हुआ था। बर्फ के कुछ हिस्से ज़मीन और कुछ हिस्से पेड़ो पर सो रहे थे। 'पूरा पर्यावरण निस्तब्ध था।' ट्रक बेलगाम सा चला जा रहा था। चंद्र बंदूक टाँगे गहरे विचारों में विलीन है। "घर से निकलते वक्त फौजी बहुत सी यादें बटोर लाता है।" कमांडर ने चंद्र को पुकारा तुम्हारे घर से फ़ोन है। फ़ोन माँ का था।

श्रीमती - "बेटा मैं आज बहुत ख़ुश हूँ । तूने मुझे बहुत
बड़ी ख़ुशी दी है। जुग जुग जी मेरे लाल।"

चन्द्र - "पर माँ ये तो बताओ हुआ क्या है। मुझे
कुछ समझ में नहीं आ रहा।" विस्मित हो
उसने पूछा।"

श्रीमती - "अरे नालायक तुझे बेटा हुआ है।"

यह सुनते ही उसके चेहरे पर ख़ुशी की लहर दौड़ गई। ख़ुशी के आगोश में लिपट ही रहा था कि सहसा धमाका हुआ और ट्रक पलट गया। कुछ ही क्षणों के बाद जवानो के लहू से भारत माता की गोद गीली हो गई। उसकी माँ की ख़ुशी पलक झपकते ही दुख में तब्दील हो गई।

"14 फरवरी 2019 पुलवामा अटैक" शहीदों के नाम लिए जा रहे थे, माँ विलाप कर रही थी। अंजू, कुसुम भी रो रो कर बेहाल हुई जा रहीं थीं लेकिन ज्योति ने आँसुओं के बाँध को खुलने नहीं दिया। शहीद चंद्र प्रताप का शव आया तो निस्तब्ध सी बैठी रही उसको देखती रही। न कोई दुख, न कोई विलाप बस आँखों मे गाढ़े पानी की झलक भर थी। कुछ देर बाद ज्योति उठी और बोली।

ज्योति - "तुम सब रोते क्यों हो पोछ लो अपने अपने
आँसू। भारत माता ने एक बेटा गवाया है तो
क्या हुआ, दूसरा जन्मा भी तो है। अब मेरा
बेटा भी 'फौज' में जायगा"।

सब चौक उठे। ज्योति की आँखों में न रोष था न ही कोई आक्रोश। बस वह गर्व से प्रफुल्लित खड़ी थी और सँसार का कण कण शहीदों को "श्रद्धांजलि" दे रहा था।

अक्षय पाठक

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